घोंचू

घोंचू
प्रस्तावना
रुको..रुको…रुको…
कथाकार कहानी शुरू करे.. उससे पहले मैं सारा बात स्पष्ठ कर दूं और कुछ अपने बारे में भी बता दूं।
पहली बात ये कि मैं घोंचू नहीं हूँ। पता नहीं, कहानीकार को मेरे से कौन-सी व्यक्तिगत दुश्मनी थी कि उन्होंने कहानी का शीर्षक ‘घोंचू’ रखा। पर मैं बचपन से बता रहा हूँ और आज भी चिल्ला-चिल्ला कर यही कहूंगा, “मैं घोंचू नहीं हूँ।”
खैर! मैं अपने बारे में कुछ बता दूं। मैं हूँ रंकेश। अब आपलोग में से कुछ लोग लंकेश रावण समझ गए होंगे। अरे भाई साहब, मैं रंकेश हूँ, लंकेश नहीं। अब आप बताओ मैं घोंचू हूँ या फिर…..
ख़ैर! छोड़िए। बुरा मत मानिएगा मेरी बातों का। कथाकार के आने से पहले मैं अपनी बात तो खत्म कर लूं।
मेरा जन्म एक छोटे से शहर में हुआ। मेरे बाबूजी एक जाने-माने अंग्रेजी मीडियम के स्कूल के प्रधानाध्यापक थे। अपने बनाये सिद्धांतों पर विश्वास रखने वाले। जब भी सिद्धांतों पर मैं उनके प्रवचन को सुनता था तो मुझे “मोहब्बतें” फ़िल्म के अमिताभ बच्चपन साहब का डायलाग याद आ जाता था –
“परम्परा, प्रतिष्ठा और अनुशासन… ये इस गुरुकूल के तीन स्तंभ हैं.. ये वो आदर्श है, जिससे हम आपके आने वाला कल बनाते है.. हाय…”
बचपन से ही मैं बहुत ज्यादा शैतानी करता था। मेरे बाबूजी ने तंग आकर मेरा दाखिला एक बॉयज बोर्डिंग स्कूल में करवा दिया। उनका मानना था कि लड़के और लड़की को हमेशा अलग रखना चाहिए। नहीं तो वो अपने जिंदगी में आगे नहीं बढ़ सकते और वो एक-दूसरे की जिंदगी बर्बाद कर देंगे।
तो इस प्रकार मेरी जिंदगी के बहुमूल्य पल, वो पल जिसमें प्यार की कलि, फूल बनने को ललाहित होती है, वो पल जिसमें ‘निब्बा निब्बी’ प्यार भरी बातें करते हैं जैसे निब्बा, निब्बी से पूछता, “बाबू ने थाना थाया।”, जिसका जवाब भी निब्बी तोतला कर देती, “हाँ, था लिया..आपने थाया।”
वैसे पल मेरी जिंदगी में मेरे बाबूजी ने होने ही नहीं दिया।
थका-हारा मैंने लड़को के बीच लगभग अपने 15-16 साल गुजारे। जब मैं बारहवीं कक्षा में पहुँचा तो बाबूजी ने पहले ही मेरा लक्ष्य तय कर दिया था, “मेरा बेटा इंजीनियर ही बनेगा।”
मैंने भी उनके इस मर्जी का विरोध नहीं किया क्योंकि मुझे अपने दोस्तों से ये पता चल गया था कि इंजिनीरिंग कॉलेज ही एक ऐसी जगह है जहाँ बहुत सारी खूबसूरत लड़कियां अपने जलवे बिखेरने आती और मैं भी उनके जलवे देखने को कई वर्षों से ललाहित था।
मैंने बारहवीं की परीक्षा उत्तीर्ण की और JEE एडवांस का परीक्षा पूरे जोश के साथ दिया। आशा के अनुरूप मार्क्स तो नहीं आए, पर इतने तो आ ही गए थे कि तीसरे या चौथे कॉउंसलिंग राउंड के बाद मुझे NIT, सिलचर में मैकेनिकल और पॉलीमर ब्रांच चुनने का मौका मिला। चूँकि पॉलीमर ब्रांच काफी नया था और भारत में उसके स्कोप इतने अच्छे नहीं थे। इसलिए बाबूजी ने मैकेनिकल ब्रांच में अपना ठप्पा लगा दिया।
मुझे ब्रांच से कोई खास लेना-देना तो था नहीं, मुझे तो बस एक ‘बंदी’ चाहिए थी, ‘आशिक़ी के लिए’।
मैं काफी उत्सुक था अपने कॉलेज जाने के लिए। बाबूजी को मेरी मंशा का अंदाजा था। इसलिए उन्होंने पहले ही हिदायत दे दी थी कि लड़कियों से दूर रहना। लड़कियां नर्क का द्वार होती। पर मेरे बाबूजी को कहाँ पता था कि मैं उस नर्क के द्वार का द्वारपाल बनने को भी तैयार था।
क्लास का पहला दिन था। मैं पहले ही क्लास पहुँच चुका था क्योंकि मैंने सुना था कि लड़कियों को punctual लड़के काफी पसंद आते। क्लास में विद्यार्थियों का आना शुरू हो चुका था। मेरे हृदय की धड़कन काफी तेज हो चुकी थी। मैं बस उस क्षण का बहुत बेशब्री से प्रतीक्षा कर रहा था, जब लड़कियों का झुण्ड क्लास में घुसेगा और मैं उन्हें सामने से निहार पाऊँगा। समय “शनै- शनै” बीतता गया और मेरी आँखें, प्यासी धरती के समान तरसती ही रह गई। क्लास पूरी तरह से भर चुका था, लेकिन अब तक एक भी लड़की का आगमन नहीं हुआ था।
मेरी नज़र दरवाजे की ओर ही थी आशा से भरपूर। तभी एक लड़के ने पीछे से मेरे पीठ में दे मारा,” क्या हुआ देवदास? किसे ढूंढ रहे हो?”
मेरे मुंह से तदक्षण निकल गया, “लड़की”।
पहली बार मुझे इस कहावत में सच्चाई मालूम पड़ी, “कमान से निकला तीर, मुहं से निकली बात और गर्लफ्रैंड को दिया गया उधार कभी वापस नहीं आता।”
मेरे मुंह से निकला शब्द ‘लड़की’ मानो पूरे हॉल में गूंज गया। सब मुझे ही देखने लगे और फिर सब जोर-जोर से खिलखिला कर हँसने लगे।
“मैकेनिकल ब्रांच में लड़कियों की उम्मीद। घोंचू कहीं का”
“इतना ही शौक था लड़कियों का तो IT ले लेते। मैकेनिक लड़कियां चाहिए घोंचू को। हा हा हा..”
सारे लोग मेरा उपहास उड़ाने लगे और इस प्रकार मेरा नाम ‘घोंचू’ पड़ गया। पर इसका मतलब ये नहीं है कि मैं घोंचू हूँ। मैं नहीं हूँ घोंचू।
चलिए मैं चला। कथाकार के आने का समय हो गया हैं। अगर उन्हें मेरा, आपलोगों के समक्ष आने का पता चल गया तो पता नहीं वो मेरे जीवन का कौन सा हिस्सा बता दे, जो शायद उन्हें और बस मुझे पता है।
एक अंतिम बात और… मैं घोंचू नहीं हूँ।।
मुख्य भाग
रंकेश नाम का एक काफी सीधा औऱ सुशील लड़का था। यूं तो उसने अपने बाबूजी की हर बात मानी। पर उसे बस एक कसक लगी रहती। उसे किसी लड़की के साथ प्रेमसूत्र में बंधना था। उसके बाबूजी ने हरेक प्रयत्न किया कि वो लड़कियों से दूर रहे। पहले उसे बॉयज बोर्डिंग स्कूल में भेजा। फिर जानबूझ कर उसे मैकेनिकल ब्रांच दिलवाया क्योंकि उन्हें पता था कि बस ये ही एक ब्रांच है जहाँ लड़कियां दूर-दूर तक नजर न आती और अगर नजर आ भी जाए तो वो किसी दूसरे ब्रांच की होती और उस दूसरे ब्रांच के लड़के, मेकैनिकल ब्रांच के लड़कों को उन लड़कियों के आसपास भटकने भी नहीं देते।
बेचारा रंकेश.. खुशी-खुशी एडमिशन तो ले लिया लेकिन बाद में उसे पता चला कि वो एक बंजर मरुस्थल में नदी की धारा खोज रहा था और तभी से उसका नाम किसी ने ‘घोंचू’ रख दिया।
यूं तो घोंचू.. मेरा मतलब रंकेश के जीवन के बहुत से अध्याय देखने और सुनने योग्य हैं क्योंकि इससे रंकेश की मासूमियत का पता चलता। उन्हीं में से एक किस्सा आपलोगों के समक्ष प्रस्तुत है….
रंकेश पिछले एक घण्टे से ट्रेन के आने की प्रतीक्षा कर रहा था। इतने गर्मी में PUBG खेल-खेल कर वो थक चुका था और चाहता था कि ट्रेन के चेयरकार में बैठ आराम से नींद की चादर ओढ़ ले। लगभग छः महीने बाद वो कॉलेज से घर जा रहा था। इसलिए वो काफ़ी उत्साहित नज़र आ रहा था।
ट्रैन के आने की सूचना हो चुकी थी और ट्रैन हमेशा की तरह सूचना होने के आधे घण्टे बाद ही धीरे-धीरे प्लेटफॉर्म में घुस रही थी। ट्रैन अब प्लेटफॉर्म आ चुकी थी और ट्रैन में चढ़ने के लिए लोग एक-दूसरे को आगे-पीछे ठेल रहे थे, मानो अगर कोई पहले चढ़ गया तो उसे टिकट कलेक्टर कोई ईनाम देगा। रंकेश अब भी प्लेटफॉर्म के सीट में बैठ कर सुस्ता रहा था।
जब सारे लोग लगभग चढ़ चुके थे, तब रंकेश ट्रैन की ओर बढ़ा। लेकिन ट्रैन में चढ़ने से तुरंत पहले वो गेट के पास रुका। उसने पहले अपने पॉकेट को टटोला और पॉकेट से अपना टिकट निकाल कर अपना सीट नंबर खोजते हुए कहा, ’29 नंबर है मेरा।’
वो काफी आशा के साथ पैसेंजर लिस्ट गौर से देखने लगा, तभी पीछे से किसी की आवाज़ आई, ‘घोंचू हो क्या? जब सीट नंबर टिकट में दिया हुआ है तो फिर क्यों पैसेंजर लिस्ट में अपना नाम खोज रहे?’
दुबारा किसी से ‘घोंचू’ शब्द सुन रंकेश को काफी गुस्सा आया और उसने उसे झिड़क दिया, ‘ भाग भूतनी के.. मैं पेड़ पर चढ़ कर नाचू, तुम्हें क्या?’
वो व्यक्ति भी उसके इस बर्ताव से सहम गया और मन ही मन उसे ‘घोंचू कहीं का’ कह कर ट्रैन चढ़ गया।
रंकेश दुबारा पैसेंजर लिस्ट सरसरी निगाह से देखने लगा। उसने सबसे पहले 27 नंबर देखा और उसके बगल में लिखा नाम पढ़ने लगा।
“सुरेश”
रंकेश के चेहरे में उदासी का भाव साफ-साफ दिख रहा था। फिर उसने उसके नीचे लिखे 28 नम्बर के सामने लिखा नाम पढ़ा और पढ़ कर चहका, “प्रिया”। लेकिन जब उसने उम्र वाले कॉलम में देखा, तो फिर उसके चेहरे में निराशा के बादल मंडराने लगे। उसने धीरे से कहा, इतना धीरे कि बस वो ही सुन सके, “उम्र 60.. धत..”
फिर इसी तरह उसने सीट नम्बर 30 और उसके सामने का नाम पढ़ा और निराशा भरे चेहरे के साथ अपना सीट नम्बर बिना देखे ट्रैन में चढ़ गया।
ये रंकेश की पुरानी आदत थी। वो जब भी ट्रैन में चढ़ता तो अगल-बगल के सीट नंबर में बैठे लोग का नाम और उम्र जरूर देखता, इस आशा के साथ कि शायद उसे अपने सपनों की राजकुमारी कहीं बगल वाली सीट में मिल जाए। पर आज तक उसे कभी सफलता न मिली। या तो उसे अंकल मिल जाते थे या फिर दिमाग खाने वाली आंटियां और वो बेचारा उनके बीच खुद को उसी प्रकार दबा हुआ पाता, जैसे दो पावरोटी के बीच आलू दबा होता।
रंकेश अपने सीट पर बैठ चुका था। वो खुद-ब-खुद बुदबुदा रहा था।
‘हर बार की तरह आज फिर से ये ‘प्रिया’ नाम की कोई आंटी बगल में बैठ जाएगी और अपने जीजा, फूफा और अपनी बहू की शिकायत करके मेरा दिमाग़ खा जाएगी और मैं उन्हें कुछ बोल तो पाऊंगा नहीं, बस जी…अच्छा.. ऐसा क्या.. यही बोल सकूँगा।‘
ट्रैन खुलने को थी और अभी तक उसके दोनों ओर कोई नहीं बैठा था। रंकेश को नींद आ गई। कुछ देर बाद अगले स्टेशन में रंकेश को किसी ने जोर से झकझोरा।
‘टिकट किधर है? ओए भाई साहब, उठो।’
रंकेश अब भी नींद में था और उसने बड़ी मुश्किल से अपनी एक आँख खोली। उन धुँधली नींद भरी आँखों ने दो-तीन पुलिस वालों के साथ एक काला कोर्ट पहने किसी शख्स को देखा।
‘ओय, टिकट किधर है?’ फिर से किसी की कर्कश आवाज़ सुनाई दी।
रंकेश नींद से एक दम जागा। वो इतनी गहरी नींद से उठा था कि उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था कि आखिर हो क्या रहा? उस सुन्नपन में वो ये तक भूल गया था कि वो ट्रैन में है।
उसने गहरी नींद से सुन्न हो चुके दिमाग में जोर डालते हुए पूछा, “कौन-सा टिकट?”
“टिकट नहीं लिए और ऐसे ही चढ़ गये। मजिस्ट्रेट चेकिंग है। उतरो ट्रैन से।” उस काले कोर्ट के साथ चल रहे पुलिस कॉन्स्टेबल ने उसका हाथ पकड़ते हुए कहा।
ट्रेन से उतरने की धमकी सुन कर रंकेश पूरी तरह से जाग चुका था।
‘अच्छा, ट्रैन का टिकट माँग रहे आप?’ रंकेश ने सुस्ताते हुए कहा।
‘ट्रैन में ट्रैन का टिकट नहीं मांगेंगे तो बस का टिकट माँगेंगे क्या? एक दम घोंचू हो का बे?’ इस बार मजिस्ट्रेट ने झिड़कते हुए कहा।
दुबारा किसी के मुँह से ‘घोंचू’ सुन रंकेश खिसिया गया। पर वो कुछ कर नहीं सकता था, नहीं तो लाठी-डंडो से उसे पुलिस वाले कूट देते। उसने शांति से अपने पॉकेट से टिकट निकाल कर मजिस्ट्रेट को दिखा दिया।
‘जब टिकट था तुम्हारे पास तो अपना और हमारा समय क्यों बर्बाद कर रहे थे? सुबह से कुछ भी आमदनी नहीं हुआ और एक ये घोंचू मिल गया।’ मजिस्ट्रेट इतना कहकर उधर से निकल गया।
रंकेश बस दाँत पिसते रह गया। जब रंकेश का गुस्सा शांत हुआ तो उसने अपने अगल-बगल देखा। सीट अब भी खाली थी। वह खुश था कि अब तक सीट में कोई नहीं आया था। न कोई अंकल और न वो प्रिया आंटी, जिनका नाम उसने पैसेंजर लिस्ट में देखा था। रंकेश दुबारा आँख बंद कर सोने का प्रयास करने लगा।
कुछ देर बाद फिर किसी ने रंकेश को धीरे से झकझोरा।
‘सुनिए!’
रंकेश ने नींद में कहा, “महाराज! अभी तो टिकट दिखलाया। कितनी बार दिखाऊ?”
“मैं टिकट देखने नहीं आई हूँ। आपके बगल वाली सीट खाली है क्या?” किसी की मधुर आवाज इस बार रंकेश के कानों में पड़ी।
रंकेश हड़बड़ा कर उठा और अपने सामने खड़े शख्स को देखते ही रह गया।
फूल-सा खिला चेहरा, गहरी खूबसूरत काली आँखे, लंबी तीखी नाक, घुँघरेले केश,मानो केश एक-दूसरे को आलंगित करके इतरा रहे हो और गुलाबी ओंठ, मानो किसी ने गुलाब की पंखुड़ियों को समानांतर रख दिया हो। लगभग उसकी उम्र 18-19 साल होगी। उसने स्लीवलेस पीले रंग की कुर्ती पहनी हुई थी, जिसमें जड़ी से सुंदर फूलों की आकृतियां बनी हुई थी और नीचे उसने गहरे नीले रंग का जीन्स पहना हुआ था।
रंकेश उसे सिर्फ देखे जा रहा था।
उसके ओंठ के दोनों छोर एक-दूसरे को स्पर्श करके बार-बार अलग हो रहे थे। शायद वो कुछ कह रही थी। लेकिन रंकेश को कुछ समझ नहीं आ रहा था।
‘सुनाई नहीं दे रहा आपको? मैं इतने देर से आपसे पूछ रही कि क्या आपके बगल की सीट खाली है? और एक आप है, बस घूरे जा रहे।’ उसने रंकेश को इस बार जोर से झकझोर कर कहा।
उसकी बात सुन रंकेश थोड़ा शर्मिंदगी महसूस करने लगा और उसने मन ही मन सोचा, ‘कैसा लड़का है तू रंकेश? क्या सोच रही होगी वो बेचारी, तेरे बारे में? सोच रही होगी कि कैसा छिछोरा है? हद हो रंकेश तुम! ‘
‘ओए! मिस्टर! कुछ बोलोगे भी?’ उस लड़की ने इस बार खीजते हुए कहा।
‘बैठिये। बैठिये। सीट खाली है। माफ कीजियेगा, मैं आपको घूर नहीं रहा था। नींद से जागा तो कुछ समझ नहीं आ रहा था।’ रंकेश ने बड़े अदब से परिस्थिति को सँभालते हुए कहा।
यह सुन उस लड़की के चेहरे में एक बड़ी-सी हँसी आ गई।
‘शुक्रिया!’ बोल कर वो रंकेश के बगल में बैठ गई।
तभी थोड़ी देर बाद उसका फ़ोन बजा।
“हाँ,यार.. ट्रैन में चढ़ चुकी हूँ। बहुत बोर फील हो रहा यार.. समझ नहीं आ रहा कि ये 8-10 घंटे कैसे बीतेंगे?” उस लड़की ने फ़ोन में बात करते हुए कहा।
रंकेश काफी असहज महसूस कर रहा था। पहली बार वो किसी लड़की के इतने करीब बैठा था। उसकी धड़कन काफी तेज चल रही थी और वो अपने को शांत करने के लिए अपने पैर को धीरे-धीरे हिला रहा था।
‘इतना पैर क्यों हिला रहे?’ उस लड़की ने रंकेश से पूछा।
ये सुन कर रंकेश ने पैर हिलाना एकदम से बंद कर दिया।
‘जी..नहीं.. कुछ नहीं..बस ऐसे ही..’ रंकेश हकलाते हुए कहा।
रंकेश शुरू से लेकर अब तक किये हरेक व्यवहार के लिए शर्मिंदा महसूस कर रहा था। उसके मन में उथल-पुथल मच रहा था कि वो क्या सोच रही होगी उसके बारे में? सोच रही होगी कि कैसा लड़का है? रंकेश इतनी शर्मिंदगी से भर चुका था कि उसने ये निर्णय ले लिया था कि वो अब उसके तरफ देखेगा भी नहीं और अपने गंतव्य स्थान पहुँच कर वो बड़े अदब से उसे बिना ‘घूरे’ ट्रैन से उतर जाएगा ताकि उस लड़की की ये गलत धारणा ख़त्म हो जाए कि वो कोई छिछोरा लड़का है।
वो इस बारे में सोच ही रहा था कि उस लड़की की आवाज़ उसे सुनाई दी, “आप कहाँ तक जाओगे?”
“जी। मैं.. मैं… जाऊँगा.. मैं..” रंकेश अचानक पूछे सवाल से हकला गया।
“आप जाओगे कहीं, इसलिए तो ट्रैन में बैठे हो। कहाँ तक जाओगे आप, ये पूछ रही मैं?” उसने हल्की-सी हँसी के साथ कहा।
रंकेश ने इस बार खुद को संभाला।
“जी, मैं गया जा रहा।”
“आ…आप…आपको कहाँ तक जाना है?” रंकेश ने इस बार हिम्मत जुटाते हुए पूछा।
“जी.. मुझे प्रयागराज जाना है।” उस लडक़ी ने कहा।
रंकेश के दिल की धड़कन कम होने के जगह और बढ़ गई थी। आजतक उसने किसी लड़की से इतनी भी बात नहीं की थी। उसके अंदर का ‘फीलिंग हैप्पी’ वाला हार्मोन श्रावित हो रहा था, जो उसे शुकून पहुँचा रहा था।
‘आपका नाम क्या है?’ थोड़ी देर बाद उस लडक़ी ने रंकेश से पूछा।
“रंकेश और आप?” रंकेश ने तदक्षण उत्तर दिया।
“जी.. मैं अंकिता..”
“अंकिता, तुम क्या करती हो?” रंकेश के अंदर का आत्मविश्वास बढ़ रहा था।
“मैं इंजिनीरिंग कर रही।”
“अरे वाह! मैं भी इंजीनियरिंग कर रहा। कौन सा ब्रांच?” रंकेश इतनी जोर से चहका कि ट्रैन में बैठे सारे लोग उसे ही देखने लगे।
अंकिता हँस पड़ी और उसके साथ रंकेश भी।
“ECE ब्रांच है मेरा और आपका?”
“मेरा मैकेनिकल इंजीनियरिंग..” रंकेश ने मुस्कुराते हुए कहा।
“अच्छा, अब समझ आया कि आप इतने अजीब क्यों बर्ताव कर रहे थे..” मैकेनिकल इंजीनियरिंग का नाम सुनते ही अंकिता ने कहा और खिलखिला कर हँसने लगी।
रंकेश उसके इस मुस्कान को जन्मों-जन्मों तक अपने दिल के किसी कोने में सहेज कर रख लेना चाहता था।
“वैसी बात नहीं है अंकिता। बहुत सारी लड़कियों को मैंने अपने कॉलेज टाइम नचाया है।” रंकेश ने एक डूड वाला एक्सप्रेशन झारते हुए कहा।
“हाँ, वो तो बात से पता चल रहा है कि अब तक कितनी लड़कियों को घुमा चूके।” अंकिता फिर जोर से हँसने लगी।
रंकेश का हरेक वार व्यर्थ जा रहा था। पर इस हार में भी उसे एक अलग-सा आनंद महसूस हो रहा था। वो इस तरह बार-बार तर्क में हारने को तैयार था।
“अच्छा जी, आपको तो बड़ा अनुभव है, तो थोड़ा हमें भी बताइए कि आपके आजतक कितने बॉयफ्रेंड रहे है?” रंकेश भी अब अंकिता की खिचाई करना शुरू कर दिया।
“आपकी जितनी गर्लफ्रैंड रही है, उससे तो ज्यादा ही रहे है।” अंकिता ने हल्की-सी हँसी के साथ कहा।
रंकेश ने वो कहावत कभी सुना था,”लड़की हँसी तो फँसी।” उसे ये कहावत अब चरितार्थ होता नज़र आ रहा था।
अंकिता ने रंकेश का हाथ पकड़ते हुए कहा, “I really like your humour..!”
अंकिता का हाथ पकड़ना, रंकेश के पूरे शरीर में एक झनझनाहट उत्पन्न कर दिया। वो अंकिता के
प्यार में डूबा जा रहा था।
“And I have started liking you..” रंकेश मौका खोना नहीं चाहता था।
“What?” अंकिता ने धीरे से कहा ।
“kidding रे अंकु” रंकेश ने बात को संभालते हुए कहा।
अंकिता खिड़की से बाहर के दृश्य को निहारने लगी। शायद वो अपने फीलिंग को रंकेश के सामने जाहिर होने नहीं देना चाहती थी।
थोड़े देर बाद, अंकिता ने रंकेश को कहा, “दिखाओ, अपने कॉलेज की pics.. देखूं मैं भी..कितनी लड़कियों को घुमाते हो कॉलेज में..”
रंकेश अपना फ़ोन निकाल कर उसे कॉलेज और अपने मित्रों के फ़ोटो दिखाने लगा।
“एक भी लड़की नहीं है और जो लड़के है, वो सब बुड्ढ़े है क्या तुम्हारे ग्रुप में? एक तुम ही बच्चे दिख रहे हो।” अंकिता ने ग्रुप फ़ोटो देखते हुए कहा।
“हाँ, सब बुड्ढ़े है.. नो गर्ल्स..” रंकेश ने उदास होते हुए कहा।
“अले… ले…ले…मेला बच्चा..” इतना कहकर अंकिता फिर खिलखिला कर हँसने लगी।
“तुम आ जाओ न मेरे कॉलेज ट्रांसफर लेकर। फिर सारा दिन तुम्हें ही देखा करूँगा।” रंकेश अब बोलने में झिझक नहीं रहा था।
“ठीक है..आ जाती हूँ।” अंकिता ने प्यार से कहा।
“हाय इतना प्यार.. हार्ट अटैक आ जाएगा मुझे।” रंकेश बेपरवाह बोला चला जा रहा था।
“मैं तो आपके लिए खाना भी बना कर लाऊंगी। ठीक हैं..” अंकिता ने हँसते हुए कहा।
“अले वाह.. आप मेले लिए थाना बनाओगी।” रंकेश ने तोतलाते हुए कहा।
“जाओ.. अब नहीं बनाऊंगी। तोतले हो तुम।” अंकिता ने मुँह बिचकाते हुए कहा।
“प्यार में लोग अक्सर तोतले हो जाते।” रंकेश ने आँख मारते हुए कहा।
“अच्छा, तो मैं अगर आपसे प्यार न करूँ तो फिर आप तोतले तो नहीं रहोगे न।” अंकिता भी बातचीत का मज़ा ले रही थी।
रंकेश आजतक इतना खुश नहीं था, जितना कि वो आज दिख रहा था। उसके दिल और दिमाग़ ने कभी इतनी खुशी महसूस नहीं की थी।
रंकेश को पहली बार एहसास हुआ कि उसे प्यार हो गया है और उसे ऐसा लग रहा था कि वो सातंवे आसमान में हैं।
“अच्छा एक बात बताओ। पटना कहाँ है?” रंकेश अभी बीत रहे पल को रिवाइंड करके अपने मन में देख ही रहा था कि अंकिता ने एक नया सवाल दाग दिया।
“बिहार में.. अंकु” अंकिता से अंकु बुलाना उसने कब शुरू कर दिया, उसे पता तक न चला।
“यही पट जाओ। इतने दूर जाने की जरूरत क्या है?” अंकिता ने पेट दबाते हुए जोर-जोर से हँसते हुए कहा।
रंकेश को भी उसकी “अंकु” की बातों से महसूस होने लगा था कि उसे भी उससे प्यार हो गया है।
रंकेश मुस्कुरा रहा था और अंकिता भी।
यूं ही बातों का सिलसिला काफी देर चलता रहा और दोनों की नींद कब लग गई, पता तक न चला।
कुछ घंटों बाद, बाहर का शोरगुल सुन कर अंकिता की आँखें खुल गई।
“Mr. रंकेश.. ट्रैन तुम्हारे स्टेशन घुस रही है।” अंकिता ने खिड़की से बाहर लगे बोर्ड को अचानक देखते हुए कहा।
समय कितनी जल्दी बीत गया, रंकेश को पता तक न चला।
रंकेश की आँखें डबडबा गई थी। अभी तो बात शुरू हुई थी और इतनी जल्दी स्टेशन कैसे आ गया। वो बार-बार इस बात को लेकर समय को कोस रहा था।
रंकेश के आँखों के आंसू अंकिता को दिख चुके थे।
अंकिता ने रंकेश का हाथ पकड़ लिया और कहा, “I love you a lot.. मैंने तुम्हें जब आज पहली बार देखा और तुम जिस तरह बच्चों के जैसे सोये हुए थे, उसी समय मुझे तुम्हारी मासूमियत से प्यार हो गया औऱ बस इसलिए तुम्हारे बगल वाली सीट में बैठने का बहाना बनाने लगी। शायद ‘Love at first sight’ इसी को कहते है।”
रंकेश को विश्वास ही नहीं हो रहा था। उसके आँखों से झरझर अश्रुओं की वर्षा होने लगी थी।
“अब तो जुदाई का समय आ गया अंकु।”
“कौन बोलता है कि ये जुदाई है? ये तो शुरुआत है पागल, हमारे प्यार की।” अंकिता की भी आँखें नम थी।
अंकिता ने अपना फोन निकाला और रंकेश के साथ एक सेल्फी ली और कहा, “देखो, तुम्हें मैं इस चित्र के माध्यम से हमेशा देखती रहूंगी और बातें करती रहूँगी। मैं तुम्हारे बिना जी नहीं सकती रंकेश।”
रंकेश, अंकिता को अपने बाहों में ले लेना चाहता था।
ट्रैन स्टेशन रुक चुकी थी।
“लेकिन हम मिलेंगे कैसे? मुझे तो तुम्हारा पता तक नहीं मालूम।” रंकेश ने अपने आँसू पोंछते हुए पूछा।
“बुद्धू, मेरी बात तो पूरी होने दो। अपना नंबर दो तुम। फोन के through हम हमेशा बातें करते रहेंगे और छुटियों में कहीं मिला भी करेंगे। मुझे तुम्हारे जैसा जीवनसाथी कभी नहीं मिल सकता।” अंकिता ने रंकेश के हाथों को सहलाते हुए कहा।
रंकेश की बांछे खिल चुकी थी। उसने झट से अपना नम्बर अंकिता को नोट करवा दिया।
“अंकिता, अपना नम्बर दो।” रंकेश ने अंकिता को प्यार भरी नजरों से देखते हुए कहा।
“बाबू, मैंने नया नम्बर लिया है, इसलिए नम्बर याद नहीं है और वैलिडिटी भी आज ही ख़त्म हुई है। इसलिए मैं तुम्हें अभी कॉलबैक नहीं कर पाऊंगी। मैं प्रयागराज पहुँच कर रिचार्ज करके तुम्हें तुरंत कॉल करती हूं। जल्दी जाओ, नहीं तो ट्रैन खुल जायेगा।”
रंकेश ने देखा कि ट्रैन धीरे-धीरे प्लेटफॉर्म से निकल रही थी। रंकेश जल्दी से ट्रैन से उतरा। ट्रैन ने अब रफ़्तार पकड़ लिया था।
कुछ देर बाद, ट्रैन काफी दूर निकल चूका था..लेकिन रंकेश वही प्लेटफार्म में खड़ा ट्रैन को देखते रह गया…शायद उसे उसकी और अंकिता की जुदाई बर्दास्त नहीं हो रही थी..
उपसंहार
2 सप्ताह बाद-
रंकेश मोबाईल को रात-दिन अपने गले से लगाए रखता, इस आस के साथ कि पता नहीं कब अंकिता का कॉल आ जाए।
आज उस घटना को बीते 2 सप्ताह हो चुके थे लेकिन अंकिता का कोई कॉल नहीं आया था। रंकेश का देवदास की तरह एक-एक पल रोते हुए बीतता।
यूं ही 1 महीना बीत गया लेकिन कोई कॉल नहीं आया।
तब एक दिन रंकेश सारे पहलुओं को एक सूत्र में पिरोने की कोशिश करने लगा।
“यार बोर हो रही हूँ…कैसे बीतेगा ये 8-10 घंटा..” मतलब उसे बोरियत ख़त्म करने के लिए कुछ एंटरटेनमेंट चाहिए था।
“तुम्हें पहली बार देखा और मुझे तुमसे प्यार हो गया…” टॉम क्रूज तो हूँ नहीं कि किसी को Love at First Sight हो जाए।
“ओ..मेकैनिकल इंजीनियर हो..इसलिए तुम्हें लड़कियों का अंदाजा नहीं..” मतलब वो जानती थी कि मुझे नहीं पता कि लड़कियां कैसी होती।
“मुझे तुम्हारे जैसा जीवनसाथी कभी नहीं मिल सकता।” मतलब पांच-छह घण्टे में ऐसा क्या हो गया कि मेरे जैसा जीवनसाथी उसे कभी नहीं मिल सकता?
“अपना नम्बर दो।” “मैंने नया नम्बर लिया है। नम्बर याद नहीं।”वैलिडिटी नहीं है, इसलिए कॉल नहीं कर सकती।”
रंकेश ने ये केस अब पूरी तरह से सॉल्व कर लिया था। वो समझ गया था कि आखिर उसके साथ हुआ क्या था उस दिन। पर वो सेल्फी वाली बात उसे समझ नहीं आई। उसने काफी जोर लगाया, तब उसकी भी गुत्थी सुलझ चुकी थी। वो सेल्फी, उसके कॉलेज के दोस्त को दिखाने के काम आएगा और अंकिता उस सेल्फी को सबको दिखाते हुए कहेगी, “देखो! इस बन्दे को…एकदम घोंचू था ये…”
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हेलो! हेलो! हेलो! कथाकार अब कहानी लिख कर जा चुका है लेकिन मैं पहले भी कहता था और आज भी कहूँगा,”मैं घोंचू नहीं हूं……”
सागर गुप्ता
Practical life ki ek chhoti si stroy…achha hai..man ki bhawnaon ko badi saralta ke sath likha gaya hai…