दीप्त जग
मिट्टी, जो सींची गई हर खेत से
हर गाँव से
वो बराबरी से सबका ख़याल करती
कुम्हार के गीले हाथो का शृंगार करती
निखर जाए महि पर
मिट्टी, जो सींची गई हर खेत से
हर गाँव से
वो बराबरी से सबका ख़याल करती
कुम्हार के गीले हाथो का शृंगार करती
निखर जाए महि पर
आसमान ने अपना पोशाक बदलना शुरु कर दिया और एक उजला रत्न जड़ित चमकीला काला चादर ओढ़े हुए असिगंज कि जमघट मे शरीक होने के लिए रवाना हो गया।
फिर से हिजरत-नामे लिखे जायेंगे
फिर से खिलती क्यारी को कुचला जायेगा
प्रफुल्लित हुई कलियों की पंखुड़ियों को नव रंग मिलेंगे,
शीत से सिकुड़े मुरझाए गुल एक संग खिलेंगे
पता नहीं इस सम्मिलित हवा मे
क्या मेरा क्या तुम्हारा कैसे बतलाओगे
कैसे बाँट पाओगे?
आज सोम भी सोग में है
देखों ना, कैसे बादलों के यवनिका तले
कर खारिज मेरी दरख्वास्त तु रोज़ रोज़
कम से कम ये तो हो की
कल और कुछ बेहतर बनू मैं
अभी चेहरे पर उसके सुकूं है
पर ये सुकून क्षण भर पहले ना था,
तब एक विवशता का सन्नाटा था