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रावण की व्यथा

‘गुरुदेव! आज मैं सभी कुछ कह देना चाहता हूँ। मैं अपने मन की व्यथा को आप सभी के सामने निकाल देना चाहता हूँ। मैंने शरीर बल, धन मद, पद-प्रतिष्ठा के मद से चूर हो इस चतुर्वर्ण व्यवस्था को चूर-चूर कर दिया।

संजीवनी

काल कितना भी विपरीत
क्यूँ ना हो,
शत्रु कितना भी शकितशाली
क्यूँ ना हो,
भक्ति और कोशिश
परिस्थिति बदल देते है,

सदगुरु विश्वमित्र और धनुर्यज्ञ

विश्वमित्र मिथिला पहुँचकर आम के एक सुन्दर बाग में रुक गए। अपने शिष्य से राजा सीरध्वज जनक को आगमन की सूचना भेज दी। राजा अप्रत्याशित सूचना पाकर घबरा गए।

रावण की आत्मा से भेंट

मैंने रामेश्वरम् की यात्रा में इसकी आत्मा से मिलने की चेष्टा की। एक बार जोर से गर्जन-तर्जन की आवाज आई। मेरे शिष्यगण डर गए।